Sunday, December 21, 2025

भारत में बेरोज़गारी का असली सच — डिग्री है, नौकरी क्यों नहीं?

भारत आज उस दौर से गुजर रहा है जहाँ युवाओं की संख्या सबसे अधिक है, लेकिन उनके सामने सबसे बड़ा प्रश्न है—रोज़गार।

अक्सर यह मान लिया जाता है कि बेरोज़गारी का अर्थ नौकरी का अभाव है, जबकि वास्तविकता इससे कहीं अधिक जटिल है। यह लेख इसी जटिलता को सरल भाषा में समझाने का प्रयास करता है—ताकि युवा केवल सरकारी नौकरी के पीछे भागने की बजाय अपने कौशल और संभावनाओं को पहचान सके।

सरकारी नौकरी: आकर्षण और वास्तविकता

सरकारी नौकरी भारत में सुरक्षा, स्थिरता और सामाजिक सम्मान का प्रतीक रही है। यही कारण है कि हर वर्ष करोड़ों युवा सीमित पदों के लिए आवेदन करते हैं।

समस्या यह नहीं कि युवा सरकारी नौकरी चाहते हैं, समस्या यह है कि वे इसे एकमात्र विकल्प मान लेते हैं।

हकीकत यह है कि सरकारी नौकरियों की संख्या सीमित है और चयन की संभावना अत्यंत कम। लाखों आवेदकों में से कुछ ही चुन पाए जाते हैं। ऐसे में वर्षों तक केवल इसी लक्ष्य पर टिके रहना, जीवन के अन्य अवसरों को पीछे छोड़ देने जैसा हो जाता है।

तैयारी की कीमत: जो दिखती नहीं

सरकारी नौकरी की तैयारी केवल परीक्षा तक सीमित नहीं रहती। इसके साथ जुड़ा होता है—
अनिश्चितता, लंबा इंतज़ार, असफलता का डर और लगातार बढ़ता मानसिक दबाव।

कई युवा अपनी उम्र का सबसे सक्रिय समय इसी तैयारी में बिता देते हैं और अंततः खाली हाथ रह जाते हैं।

यह स्थिति केवल आर्थिक नुकसान नहीं, बल्कि आत्मविश्वास और मानसिक संतुलन को भी प्रभावित करती है।

रोज़गार की कमी नहीं, कौशल की कमी

यह मानना आवश्यक है कि भारत में अवसर पूरी तरह समाप्त नहीं हुए हैं। आज भी भारत बड़ी मात्रा में ऐसे उत्पाद आयात करता है, जिन्हें देश में बनाया जा सकता है। इसका अर्थ है कि उत्पादन, सेवा और तकनीकी क्षेत्रों में रोज़गार की संभावनाएँ मौजूद हैं।

समस्या यह है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था डिग्री तो देती है, पर व्यावहारिक कौशल नहीं। उद्योग को चाहिए प्रशिक्षित, काम के लिए तैयार युवा, जबकि अधिकांश युवा केवल सैद्धांतिक ज्ञान के साथ निकलते हैं।

निजी और कौशल आधारित कार्यों के प्रति पूर्वाग्रह

हमारे समाज में आज भी निजी नौकरी और कौशल आधारित कार्यों को सरकारी नौकरी से कमतर माना जाता है।

यही मानसिकता युवाओं को फैक्ट्री, कार्यशाला, तकनीकी सेवा और स्वरोज़गार से दूर रखती है।

जब तक काम की गरिमा को पद और कार्यालय से नहीं, बल्कि कौशल और योगदान से नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक यह समस्या बनी रहेगी।

शुरुआत में कम आय: एक स्वाभाविक सच्चाई

कौशल आधारित काम में प्रारंभिक आय कम होना असामान्य नहीं है। हर पेशे में अनुभव के साथ आय बढ़ती है। शुरुआती दौर सीखने का होता है, कमाने का नहीं।

यही वह चरण होता है जहाँ व्यक्ति धैर्य, समझ और कार्य-कौशल विकसित करता है, जो आगे चलकर उसकी आय और पहचान दोनों बढ़ाता है।

अनुभव के साथ बढ़ती आय और अवसर

जैसे-जैसे कौशल पर पकड़ मजबूत होती है, व्यक्ति के विकल्प भी बढ़ते हैं। वह बेहतर वेतन पा सकता है, स्वतंत्र रूप से काम कर सकता है या स्वयं का व्यवसाय शुरू कर सकता है।

कई लोग जो कभी कम आय पर काम कर रहे थे, आज प्रशिक्षक, उद्यमी या उद्योगपति बन चुके हैं।

स्टार्टअप संस्कृति: बदलते भारत की तस्वीर

आज भारत में अनेक स्टार्टअप ऐसे हैं जिन्होंने साधारण शुरुआत की और आज करोड़ों की आय कर रहे हैं।
इनकी सफलता का आधार सरकारी नौकरी नहीं, बल्कि कौशल, नवाचार और जोखिम लेने की क्षमता रही है।

स्टार्टअप संस्कृति यह संदेश देती है कि सुरक्षित रास्ते से हटकर भी स्थायी और सम्मानजनक भविष्य बनाया जा सकता है।

सरकारी नौकरी बनाम कौशल आधारित भविष्य

सरकारी नौकरी स्थिरता देती है, पर उसकी वृद्धि सीमित होती है। वहीं कौशल आधारित करियर में कोई सीमा नहीं होती। यहाँ आय, पहचान और विस्तार व्यक्ति की मेहनत और सोच पर निर्भर करता है।

इसलिए यह आवश्यक है कि युवा सरकारी नौकरी को एक विकल्प माने, न कि जीवन की अंतिम मंज़िल।

नई सोच की आवश्यकता

आज आवश्यकता है ऐसी सोच की जहाँ युवा स्वयं से पूछे—
मैं क्या सीख सकता हूँ?
मैं क्या बना सकता हूँ?
मैं किस समस्या का समाधान कर सकता हूँ?

जब यह प्रश्न बदलते हैं, तब रास्ते भी बदलने लगते हैं।

भारत की बेरोज़गारी का समाधान केवल सरकारी नौकरियों की संख्या बढ़ाने में नहीं, बल्कि युवाओं को कौशल, आत्मविश्वास और विविध अवसरों की ओर मोड़ने में है।

कम आय से शुरू होकर बड़ी सफलता तक पहुँचना कोई अपवाद नहीं, बल्कि आज के समय की वास्तविकता है।

सरकारी नौकरी सम्मान देती है,
लेकिन कौशल भविष्य बनाता है।

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